शिवपुरी, 3 मई 2025 —
जब शब्दों से क्रांति होती है, तब सबसे पहले निशाने पर आता है सच बोलने वाला पत्रकार। आज विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस है — एक ऐसा दिन जो हमें उन वीर कलमकारों की याद दिलाता है जिन्होंने अपने जीवन की बाज़ी लगा दी, लेकिन सच के आगे झुके नहीं।
इनमें से किसी ने आतंक के सामने खड़े होकर अंतिम सांस ली, तो किसी ने तानाशाही शासन को आईना दिखाते हुए अपनी लेखनी से डर फैलाया। अमेरिका के जेम्स फोले से लेकर भारत के रामचंद्र छत्रपति तक, इन नामों ने साबित किया कि पत्रकारिता केवल पेशा नहीं, बल्कि एक जुनून है — कभी-कभी यह जुनून जान की कीमत पर भी निभाना पड़ता है।
जेम्स फोले को इस्लामिक स्टेट ने दुनिया के सामने मार डाला, लेकिन उन्होंने सच की तलाश नहीं छोड़ी।
शहाबुद्दीन घटक ने तुर्की में सत्ता के सामने कलम नहीं झुकाई।
गोपालगंज के शहीद राजदेव रंजन ने सत्ता के काले सच को उजागर किया।
लक्ष्मण नायक, शंकर गुप्ता, और तरुण भानु सिंह जैसे कई पत्रकारों ने साबित किया कि सच्चाई की राह भले ही कठिन हो, लेकिन यह राह अमरता देती है।
2003 से अब तक 139 भारतीय पत्रकार हमलों के शिकार हुए, जिनमें से 67 की जान चली गई। वैश्विक आंकड़ों में यह स्थिति और भी गंभीर है।
यह दिन एक सवाल भी छोड़ जाता है — क्या आज भी पत्रकारों को सच लिखने की आज़ादी है? या फिर वो आज भी सत्ता, आतंक और लालच के बीच पिसते हुए अपने कर्तव्य को निभा रहे हैं?
आज ज़रूरत है कि हम इन शहीद पत्रकारों को सिर्फ श्रद्धांजलि न दें, बल्कि उनके आदर्शों को ज़िंदा रखें। क्योंकि जब तक सच बोले जाने की हिम्मत ज़िंदा है, तब तक लोकतंत्र ज़िंदा है।