वे राज कर रहे हैं और हम टुकड़खोरी में रमे हैं




संजय बेचैन। गणतंत्र को जनता का जनता के लिए शासन के तौर पर परिभाषित किया जाता है। आज हम गणतंत्र दिवस मना रहे हैं, मगर कभी कभी तो ये भ्रम हमें और आप सभी को होता है कि हम लोकतंत्र में जी रहे हैं या प्रलोभन तंत्र में। यहाँ तो लोकतंत्र की ओट में लूट तंत्र भी खूब फल फूल रहा है। 


आज हर व्यक्ति अपनी इच्छा या कुंठा भीड़ के माध्यम से पूरी कर रहा है क्योंकि भीड़ बुद्घि से नहीं उन्माद से चलती है और भीड़ का अपराध किसी एक अपराध नहींव होता। इसलिए हम निष्कलंक रहने का भ्रम भी पाल बैठते हैं। व्यवस्था में जो सबल हैं वे निर्बल का शोषण कर रहे हैं ठीक वैसे ही वैसे शहर, गाँवों का शोषण करते हैं। 


राजनेता सत्ता में बने रहने के लिए प्रलोभन देकर लोगों को नकारा और मक्कार बनाने पर तुले हैं यह कैसी लोकशाही है। हम भी अक्सर कितनी अबौद्घिक बातें करते हैं हम हर समस्या का हल राजनीतिज्ञ से चाहते हैं जबकि राजनीतिज्ञ केवल समस्या पैदा करना जानते हैं। समस्या न होंगी तो राजनीति ही नहीं होगी और जब राजनीति न होगी तो राजनीतिज्ञ कहाँ रहेगा। राजनीति ने जन कल्याण के नाम पर हमारा आत्मबल, हमारा आत्मविश्वास और जहाँ तक कि खुद के प्रति जिम्मेदारी का भाव भी छीन लिया है। 


हमने अपने सुख दुख सरकार के जिम्मे कर दिए हैं पढ़ाई लिखाई, रोजगार, दवा, दारू सब कुछ सरकार के भरोसे। नेता चतुर होते हैं उन्होंने जनता से सब कुछ छीनकर उसे केवल गाली देने और कोसने की स्वतंत्रता का अधिकार दे दिया है। हम केवल आलोचना करते हैं और वे हम पर राज करते हैं। वे राज कर रहे हैं और हम टुकड़खोरी में रमे हैं इसीलिए वे कभी कर्ज माफी के टुकड़े फेंक देते हैं, जमीनों पर कब्जे करवाकर पट्टों का चुग्गा हमारे सामने डाल देते हैं ताकि मुफ्तखोरी के खुमार से हम (जनता) उबर ही न पायें। 


नतीजा यह है कि टुकड़े फेंककर एक बड़े वर्ग को निक्कमा और काहिल बना दिया गया है जबकि दूसरा समूह चतुराई के साथ सम्पन्नता की सीढिय़ां चढ़ता चला जा रहा है। हम मुफ्त में मिल रही सरकारी खैरात को नेताओं की कृपा मान उनके सामने दोहरे हुए जा रहे हैं जबकि वे हमारा सब कुछ छीनकर दम्भ से इतराए जा रहे हैं। हमें कर्जदार बनाकर मलाई वे डकार रहे हैं बड़ी बड़ी लच्छेदार बातें कर जनता के रहनुमा बनने का स्वांग करने वाले इन लोगों से पूछिए इनको ऐसा कौन सी लॉटरी या जैकपॉट लगा जो राजनीति में आते ही साइकिल से सफारी पर आ गए। 


जिन गरीब, लाचार आदिवासियों के नाम पर अब तक अरबों का बजट खर्च हुआ वे आज भी नंगे और भूखे क्यों बने हुए हैं? बिडम्बना है इस लोकतंत्र की कि जो मूलत: सेवक हैं वे स्वामी बन बैठे हैं और जो स्वामी हैं उनकी हैसियत टुकड़खोर की बनाकर रख दी गई है। बावजूद इसके हम खुश हंै और एहसानमंद भी 20&20 फुट की जमीन का पट्टा मिल गया, रिश्वत काटकर जो चंद पैसे बतौर कर्ज मिला था वह माफ हो गया इससे अधिक सोच का दायरा ही हमारा नहीं है सो नेता माई बाप की जय बोले जा रहे हैं। हम अपने ही घर को लुटते और राहजनों को रहवर माने जा रहे हैं। जनता न हुई दधीचि हो गई। पुरातन काल से तो यही होता आ रहा है। 


अपने स्वर्ग का सिंहासन बचाने और राक्षस को मारने के लिए दधीचि से अकाल मौत का वरण कराया जाता है और इंद्र उनकी अस्थियों से बज्र बनाकर अपना सिंहासन सुरक्षित रखते हैं। आज भी यही हो रहा है एक पिचका पेट काटकर दूसरा पेट फुलाया जा रहा है। दधीचि बनी जनता के न चाहने पर भी इंद्र बने नेता उसके प्राण निकालकर अपना साम्राज्य सुरक्षित करने में लगे हैं अब ऐसे में इसे किस तरह का तंत्र कहें फैसला आपके हाथ...

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