*[✍️बृजेश सिंह तोमर】*
👁️नगर पालिका शिवपुरी इन दिनों नाट्य सभागार की मंच बनी हुई है जिस पर खूब अदाकारी की जा रही है। पिछले कई महीनों से अध्यक्ष के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने की कवायद ऐसे चल रही है मानो शहर के विकास से ज्यादा ज़रूरी यही तमाशा हो। एक धड़ा असंतुष्ट पार्षदों का है जो कभी बगीचा सरकार पर जाकर कसम खा आता है, तो कभी सोशल मीडिया पर बयानबाजी करता है ओर किसी भी स्थिति में अध्यक्ष को कुर्सी से पटकने की जुगत में लगा है। वह ऐन केन प्रकारेण अध्यक्ष को स्वाहा करने में जुटा है अथवा थोकबंद स्तीफा देने की धमकी दे रहा है।
दूसरा धड़ा अध्यक्ष के इर्द गिर्द सुरक्षा कवच की भूमिका में है जो कुसी बचाने में जुटा है।सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म सहित आकाओं के समक्ष दावे दोनों ही तरफ से बहुमत के किये जा रहे है जिसमे परिणाम भविष्य के गर्त में छुपा है लेकिन विवाद के इस प्रसंग पर फिलहाल विराम नही लग सका।इन सबके बीच शहर का "विकास"मुँह तांक रहा है और आवाम खुद को हर बार की तरह ठगा सा महसूस कर मूक दर्शक की भूमिका में बैठी है।
★अध्यक्ष और पार्षदों के बीच गहराई जंग का प्रसंग सबको ज्ञात है किंतु इस हद तक क्यो हुआ यह कारण अब भी अज्ञात है।कड़वी सही किन्तु हकीकत यह है कि असंतोष की आग नगरपालिका चुनाव के बाद अध्यक्ष की ताजपोशी के साथ ही सुलग गयी थी जिसमे समय समय पर घी डाला जाता रहा । इंतज़ार सिर्फ अविश्वास प्रस्ताव प्रस्तुत करने हेतु आवश्यक निर्धारित तिथि का किया जा रहा था।इस चिंगारी को हवा कुछ माह पूर्व से दी जाने लगी।क्यो,कहा से,किसलिये यह विषय फिलहाल चर्चा का नही है किंतु इसमें आग की लपटें तब तेजी से उठी जब यकायक पार्षदों के असन्तुष्ट धड़े ने करेरा के प्रसिद्ध बगीचा सरकार मंदिर पर अध्यक्ष को हटाने अथवा सामूहिक इस्तीफे देने की सोंगन्ध खा ली और दवाब अथवा सुर्खिया बटोरने के लिये इसे सोशल मीडिया पर वायरल कर दिया।बस,यही से फांस गले मे उलझ गयी जिसे न निगल पा रहे, न उगल पा रहे।
👁️मान्यता यह है कि बगीचा सरकार की झूठी सौगंध खाने वाला “कोढ़ी” हो जाता है या परिणाम उसका कुल भी भुगतता है। अब पार्षद बेचारे फँस गए। जनता पूछ रही है कि इस्तीफे कब देंगे?” सोशल मीडिया पर रोज़ नई-नई ट्रॉलिंग हो रही है। मगर इस्तीफा कहाँ..? सब एक-दूसरे को बस धार पर रख रहे हैं।
स्थानीय व वरिष्ठ नेता भी सामंजस्य बिठाने के क्षणिक प्रयासों के बाद इस प्रहसन से पल्ला झाड़ चुके हैं। तमाम नेता जो कभी निर्णायक भूमिका निभाते थे, अब किनारे बैठकर तमाशा देख रहे हैं। शायद उन्हें भी समझ आ गया है कि इस खेल में मसाला तो है, पर जनता का भला कतई नहीं। कलेक्टर के पास भी असंतुष्टों की एकता की परीक्षा होगी कि कौन कितने पानी में है, ये भी साफ हो जाएगा..।
उधर समय गुजरने के साथ अध्यक्ष खेमे ने भी डैमेज- कंट्रोल का खेल शुरू कर दिया है। बहुमत सुरक्षित रखने के लिए दावे,वादे,सुविधा और दबाब के ब्रह्मास्त्र चला दिए है।पर्दे के पीछे से उन्हें तमाम नई मिसाइलें भी मिल गयी।सूत्र बताते है कि राजनीति की इस खिचड़ी में असन्तुष्ट धड़े के कुछ “पिलर” सरक भी गये हैं। सुना है कि उनमें से कुछ तो क्रॉस वोटिंग तक नहीं करेंगे। मतलब साफ है कि सुरक्षा के प्रवन्ध पुख्ता हो गए ।हालांकि इसका अंदेशा असन्तुष्ट धड़े को भी है मगर अपनी पीर कहे किससे।बीते रोज यह धड़ा फिर एक बार बगीचा सरकार के समक्ष नतमस्तक हुआ ओर आगे का मार्ग प्रशस्त्र करने की कामना की।हालांकि इस बार उनकी संख्या कम रही ,क्यो इसका अनुमान वे भी लगा चुके है।
🌓बहरहाल इस नूरा कुश्ती के बीच अब भी सवाल वहीं है,कि क्या शहर की जनता ने अपने प्रतिनिधियों को सिर्फ इस नाटकबाजी के लिए चुना था...? क्या नगर पालिका परिषद की बैठकें विकास की योजनाएँ बनाने की जगह सिर्फ टांग खिंचाई का माध्यम अथवा “मनोरंजन सभा” बन चुकी थी...? क्यो पहले से तय रहता है कि कौन किस पर चिल्लाएगा, कौन हंगामा शुरू करेगा अथवा कौन विरोध का झंडा लहराएगा..। प्रश्न उठता है कि फिर विकास...? अरे जनाब, वो तो बैठक की एजेंडा लिस्ट में ही नहीं होता था...!एजेंडा भी ऐसा जिसमे स्वहित की बू आती थी..!
शहर की आवाम ने वार्डो से योग्य प्रत्याशियों को चुनकर शहर विकास में सहभागिता निभाने के लिये भेजा था।जनता को सड़क चाहिए, सफाई चाहिए, नाली चाहिए, स्वक्ष पानी चाहिए। लेकिन परिणामो में सामने क्या आया..? शिगूफा,चर्चा, सुर्ख़ियाँ और शक्ति प्रदर्शन....,बस..।3 वर्षों में हालात क्या हुये “विकास जाए भाड़ में, हमारी राजनीति चमकती रहनी चाहिए।” यही नया नारा है क्या..? यहाँ दोषी एक पक्ष को मान लेना भी गलत होगा,कोन सही कोन गलत यह फैसला भी करना गलत होगा क्योंकि हर बात कहने का प्रयोजन खुद से बेहतर कोई नही जानता किन्तु क्या यही समाधान था..? पद की गरिमा तो पद मिलने से नही बल्कि उसे साकार करने से होती है फिर क्या इसके लिए पूर्ण प्रयास किये गए,यह आत्ममंथन का विषय है.!अहंकार,अति आत्मविश्वास,स्वार्थ,विद्वेष,गलतफहमी,धारणा पतन के कारण है और यह किसी भी पक्ष के लिहाज से हितकर नही किन्तु परिषद में यही सब क्यों प्रमुखता से रहे।
खैर, नया नों दिन,पुराना सौ दिन...!
👉दोनों की पक्षो को अपनी तो मुफ्त की सलाह बस यही है कि "बंद मुट्ठी लाख की ओर खुल गयी तो खाक की.."। सुबह का भुला यदि शाम को घर आ जाये तो उसे भुला नही कहते।बुजुर्गों की इस कहाबत पर गौर करे,तो अब भी समय है..। चने के झाड़ पर चढ़ने ओर गाल बजाना छोड़कर शहर के विकास का खाका यदि आपसी सामंजस्य से खींचे तो कार्यकाल के बाद भी आवाम याद करेगीं। आने वाले दो वर्षों में यदि मिलकर मेहनत कर लें तो शिवपुरी को कुछ तो देंगे। दोनों ही पक्ष यदि"अहम "को त्याग कर एक परिवार की तरह मतभेद भूलकर "सिर्फ विकास"को प्राथमिकता दे तो परिणाम अब भी बेहतर आ सकते है और जगहंसाई से बचा जा सकता है।
🚩रही बात बगीचा सरकार पर सोंगन्ध खाने की,तो बाबा बड़े दयालु है, करुणामयी हैं..। यदि कसम खा भी ली तो माफी मांग लेने पर क्षमा कर देंगे। वैसे भी बाबा विनाश तो चाहेगे नही ।रही बात कोन सही और कौन गलत इसका फैंसला बाबा बगीचा सरकार पर ही छोड़ दो।वैसे भी इंसान "भगवान और खुद "से कोई कृत्य छुपा नहीं कर सकता। यदि कुछ गलत होगा तो समय आने पर हिसाब चुकाना ही पड़ता है..।
ओर सुनो न...! जनहित के लिये कैसी अकड़..!वैसे भी किसी शायर ने कहा है-
*🤝झुकता वही है,जिसमे जान होती है..*
*अकड़ मुर्दों की पहचान होती है,..!!*
अब हमने तो "फोकट की राय"परोस दी,मानना या मानना तीरंदाजों पर है,शेष देखना है जोर कितना बाजुए कातिल में है...!
🙏इति श्री...!
*(✍️ #बृजेश_सिंह_तोमर)*
*📲7999881392*
✍️✍️✍️✍️✍️✍️✍️