दैनिक भास्कर इंदौर के संपादक अमित मंडलोई ने इंदौर की पुलिस पर जो संपादकीय लिखा है, उसे एक बार सभी को अवश्य पढना चाहिए




बेहतर यही है कि अब हम जिम्मेदारों से माफी मांग लें... आपसे नहीं हो पा रहा तो मेहरबानी करके हमारे इंदौर को बख्श दें ...


पूरा शहर आज एक ही सवाल पूछ रहा है कि इंदौर में आखिर पुलिस है कहां? जिस दिन प्रदेश सरकार ने कमिश्नरी लागू की थी, क्या उसी दिन पुलिस का श्राद्ध कर दिया गया था ? लगता है जैसे शहर की सुरक्षा और नागरिकों के जान-माल की रक्षा करने की व्यवस्था को कोई तिलांजलिजलांजलि देने वाला तक नहीं बचा है। अफसर चौराहों पर सिर्फ चालान बनाने व शराबी की तलाश में वाहन चालकों से फूंक लगवाने में लगे हैं। गुंडे-बदमाशों, शराब विक्रेताओं की चिलम भरी जा रही है। नेताओं की ड्योढ़ियों पर रीढ़ समर्पित की जा रही है और जनता को सड़कों पर मरने के लिए छोड़ दिया गया है।


कोई है ! इस शहर में जिम्मेदार जो इस बात का जवाब देगा कि आखिर पीक ऑवर्स में नो एंट्री में कोई ट्रक घुस कैसे गया ? इंदौर की पुलिस अकर्मण्यता, लापरवाही और भ्रष्टाचार की किस कंदरा में जाकर छुप गई थी ? वर्दी का जमीर इस शहर में इस तरह रसातल में चला जाएगा किसी ने कल्पना नहीं की थी । एक सामान्य नागरिक नो एंट्री में घुस जाए तो पूरी पुलिस कानून की किताब लेकर चील - कौवों की तरह टूट पड़ती है। नशे में धुत ड्राइवर मौत का ट्रक लेकर नो एंट्री में घुसा और जिंदगियों को रौंदते हुए चला गया। बड़ा गणपति पर भी लोगों ने उस ट्रक को रोका। यहां तक कि झुलसते हुए ट्रक में फंसे जलते हुए व्यक्ति को भी लोगों ने ही बाहर निकाला। कभी इस शहर को गिनती के दो-तीन आईपीएस और छह सीएसपी संभालते थे। अब पूरी 18 आईपीएस की फौज क्या शहर को ये ही दिन दिखाने के लिए है ?


लानत है ऐसी व्यवस्था पर लानत है ऐसे अफसरों पर जिन्होंने मानो अपनी जिम्मेदारी का गया जी में जाकर श्राद्ध कर दिया है और दिखावे के नाम पर रीढ़ और जमीर रहित जिस्म पर वर्दी टांगकर दफ्तरों की शोभा बढ़ा रहे हैं। शर्म आती है कहते हुए कि ये इंदौर का निजाम है। उस इंदौर का जहां बेटे की गलती पर मां देवी अहिल्या उसे भी मृत्युदंड देने का फैसला करने से नहीं चूकीं । उसी इंदौर में हर दिन नए-नए कांड हो रहे हैं।


इंदौर का नेतृत्व भी जैसे अपनी आब खो चुका है। छोटे-छोटे सियासी मुद्दों पर भोपाल- दिल्ली एक करने वाले नेताओं की इन अव्यवस्थाओं पर जुबान ही नहीं खुल रही है। क्या उन्हें इतना मजबूर कर दिया गया है कि शहर जल रहा है, उसके बाद भी वे लक्ष्मण रेखा पार करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं? लोगों के मरने के बाद मिजाजपुर्सी करने, उनका इलाज करने और उनके परिजन को मुआवजा बांटने से कुछ हासिल नहीं होगा? जीतेजागते लोगों की सुरक्षा का भरोसा दिलाना होगा । विपक्ष तो पहले ही खत्म हो चुका, आश्चर्य है कि अब सत्ता का रसूख भी इस तरह धूल में मिलते हुए देखना पड़ रहा है।


सवाल यही है कि क्या किसी की आवाज में इतनी भी ताकत नहीं बची, जो अफसरों पर नकेल कस सके, उन्हें कम से कम अपनी मूलभूत जिम्मेदारी निभाने को विवश कर सके ? आखिर कब तक इन अव्यवस्थाओं के कारण हम अपनों की लाश ढोएंगे? आखिर कब तक सड़कों पर इस तरह अपनों को मरते, झुलसते, तड़पते हुए देखेंगे। क्या वास्तव में शहर की चिंता किसी को नहीं बची है? कोई नहीं है जो अफसरों से दो टूक पूछ सके कि पूरा अमला क्या कर रहा था, जब मौत का वह ट्रक नो एंट्री में घुस रहा था ? इस दिन के लिए आपको जनता पाल रही है। उस समय वहां कौन लोग ड्यूटी पर थे, उनकी वर्दियां अब तक सुरक्षित कैसे रह सकती है ? जनता की एक गलती पर आप उसे जैसे सूली पर ही चढ़ा देते हैं, तो लार्ड-गवर्नर अपने गुनाहों पर कब तक और किस हद तक पर्दा डालते रहेंगे? करोड़ों के उपकरण, कंट्रोल रूम, सीसीटीवी कैमरे सब सिर्फ जनता की खाल उधेड़ने के लिए ही है क्या ?


कोर्ट में इतनी बार लज्जित होने के बाद, सुप्रीम कोर्ट की कमेटी के सामने शर्मिंदा होने और शहर के लोगों को यूं रोज ही घंटों ट्रैफिक जाम में फंसते, उलझते, मरते-पीटते देखने के बाद भी जिन लोगों का जमीर नहीं जाग रहा, बेहतर है शहर उनसे माफी मांग ले कि अगर आप से नहीं हो रहा तो कृपया हमारे शहर को बख्श दें। हम फिर होलकर रियासत की तरह गोल टोपी वाली पुलिस खुद खड़ी कर लेंगे, वक्त आएगा तो एक-एक घर से लोग इकट्ठे कर एक-दूसरे की सुरक्षा में खड़े हो जाएंगे। इंदौर ने जनभागीदारी से ही दुनिया बदली है, जनभागीदारी से ही अपनी सुरक्षा भी कर लेंगे। आप अपनी वर्दियों, कुर्सियां संभाले, अपने हाथकंडे, एजेंडे चलाएं, शहर को माफ़ कर दें।


भास्कर संपादकीय, अमित मंडलोई, संपादक

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