चीन के ‘सिल्क रुट’ का मतलब क्या है? (A टू Z)

Editar mithilesh
बदलती दुनिया में चीन का उभार पिछले चार दशकों की एक ऐसी सच्चाई है, जिसने न केवल दक्षिण एशिया वरन वैश्विक समीकरणों को भी मजबूत ढंग से बदला है. आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि 70 के दशक में भारत और चीन की प्रति व्यक्ति आय लगभग समान थी, किन्तु उसके बाद स्थितियां तेजी से बदलीं. 90 के दशक में सोवियत संघ के विघटन के बाद लगभग एक दशक तक अमेरिका को चुनौती देने की हालत में कोई अन्य देश नहीं था, पर 21वीं सदी की शुरुआत से ही चीन ने तमाम वैश्विक मामलों में अपना दखल बढ़ाना शुरू कर दिया. यहाँ तक कि…
कई मामलों में अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को धत्ता बताते हुए चीन ने स्वेच्छाचार तक किया. मसलन साउथ चाइना सी को ही ले लीजिये. तमाम देशों के साथ अंतर्राष्ट्रीय अदालत ने चीन के खिलाफ फैसला दिया, किन्तु चीन टस से मस तक न हुआ. यही क्यों, उत्तर कोरिया जिसे लेकर कोरियाई प्रायद्वीप में तलवारें खींचीं हुई हैं, उसका सबसे करीबी चीन ही रहा है. पाकिस्तान के साथ उसके सम्बन्ध की चर्चा हम आगे की लाइनों में करेंगे, पर उससे पहले चीन के लिए ‘सिल्क रुट’ की अहमियत समझना आवश्यक हो जाता है.

भारत का उदय

20वीं सदी बीतते बीतते भारत अपने पैरों पर पूरी तरह खड़ा हो चुका था और चीन के उभार ने अमेरिका को इस बात के लिए मजबूर कर दिया कि वह भारत के साथ अपने सहयोग को नया आयाम दे. यह सहयोग राजनीतिक, आर्थिक और सामरिक सहित हर उस क्षेत्र में शुरू हुआ जहाँ सोवियत विघटन से पहले इस पर सोचा भी नहीं जा सकता था. भारत का लोकतंत्र, यहाँ की बड़ी आबादी, सस्ता मगर स्किल्ड श्रम ने अमेरिकियों को करीब से प्रभावित किया और बाजार के बहाने ही सही, दोनों देश पास आने लगे. बीते दो दशकों में यह सम्बन्ध इस कदर परवान चढ़ा कि चीन सहम सा गया और उसके रणनीतिकारों ने कई मोर्चों पर कार्य करना शुरू कर दिया. भारत की इकोनॉमिकल ग्रोथ और पश्चिमी देशों में उसकी बढ़ रही स्वीकार्यता ने चीन के माथे पर चिंता की बड़ी लकीरें खींचनी शुरू कर दी थी. जाहिर तौर पर आर्थिक मोर्चे को आधार बनाकर ही अब वर्चस्व की लड़ाई संभव हो सकती है और यह एक बड़ा कारण बना चीन के ओबीओआर (वन बेल्ट, वन रोड) यानी सिल्क रोड की नींव पड़ने का.

चीन का पाकिस्तानी दांव

ज्यों ज्यों अमेरिका भारत के करीब आता गया, त्यों त्यों पाकिस्तान की हालत खराब होने लगी थी और चीन इस बात को बखूबी ताड़ गया कि उसके मुकाबले में खड़े हो रहे भारत को यही देश कुछ हद तक रोक सकता है. पर मुश्किल यह थी कि आर्थिक रूप से खोखला हो रहा देश बहुत जल्दी बिखर सकता था और इसलिए चीन ने 46 अरब डॉलर की परियोजना सिर्फ और सिर्फ पाकिस्तान में झोंक दी. चीन इस बात के प्रति आश्वस्त दिख रहा है कि उसके इस दांव से पाकिस्तान एक हद तक भारत की चिंता बढ़ाने लायक काबिलियत हासिल कर सकता है. हालाँकि, पाकिस्तान में बढ़ रहे चरमपंथ से उसे इस बात की बड़ी चिंता है कि कॉरिडोर की सफलता किस हद तक हो सकेगी, बावजूद इसके चीन ने बड़ा रिस्क लिया है. कहा जा रहा है कि इस कॉरिडोर की सुरक्षा चीनी खर्च पर ही होगी और कुल मिलाकर यह खर्च इतना बड़ा होगा कि चीनी अर्थव्यवस्था की सेहत डावांडोल हो सकती है. हालाँकि, हाल फिलहाल चीन के पास पैसे की कमी नहीं है और वह दांव पर दांव पूरे आत्मविश्वास के साथ खेलता जा रहा है.

माल की खपत का इंतजाम

बीते चार दशकों में चीन यूं ही वैश्विक पटल पर नहीं उभरा है, बल्कि इसके लिए उसने झोली भर भर कर सामान मैनुफ़ैक्चर किये हैं. शुरू के दिनों में इसकी खपत आसानी से कई बाज़ारों में हो जा रही थी, तो चीन खुद ही इसका एक बड़ा मार्किट था. पर अब इस बढ़ते कारोबार के लिए चीन को नए बाज़ार की तलाश करनी पड़ रही है. ऊपर से भारत जैसे देश मैन्युफक्चरिंग में उसे कड़ी टक्कर देने की स्थिति में जल्द ही पहुँच सकते हैं. जाहिर तौर पर सिल्क रुट से अफ़्रीकी देशों तक उसकी पहुँच आसान हो जायेगी और छोटे मोटे कॉम्पिटिशन को कुचलने की ताकत चीन में तो है ही. उदारीकरण के नाम पर तमाम अफ़्रीकी देशों में वह अपने सामान ठूंस देगा और यह एक बहुत बड़ा कारण है सिल्क रुट के निर्माण का.

इतिहास के आईने से…

कई हज़ार साल पहले दुनिया के पूर्वी, पश्चिमी हिस्सों को आपस में मिलाने का जो रास्ता बना था, उसे ही ‘सिल्क रुट’ या ‘रेशम राजमार्ग’ कहा गया. गौरतलब है कि चीन को तुर्की से जोड़ने वाले इस मार्ग में एक नहीं, बल्कि कई सिल्क रूट थे. व्यापार और व्यापारी के माध्यम से ही इस रास्ते की उन्नति हुई, जबकि शासक वर्ग का कोई ख़ास रोल नहीं था इसमें. तुर्की, सीरिया, ईराक, ईरान, तुर्कमेनिस्तान, उज्बेकिस्तान, तजाकिस्तान, कज़ाकस्तान, अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान, इंडिया (लेह, जैसलमेर, मथुरा, वाराणसी, पटना, नालासोपारा / सोपारा), नेपाल, तिब्बत, बांग्लादेश, भूटान, कोरिया व जापान के कई हिस्से इस ऐतिहासिक रुट से जुड़े हुए थे. गौर करने वाली बात यह भी है कि व्यापारिक दृष्टि से बने इस ‘सिल्क रुट’ का चीन हालिया परिस्थिति में वर्चस्व के लिहाज से उपयोग करना चाहता है. शायद यही कारण है कि अमरीका और जापान जैसे देश भी चीन की इस महत्वाकांक्षी परियोजना से आशंकित हैं. जहाँ तक भारत की बात है, तो उसे नेपाल, श्रीलंका, बांग्लादेश, भूटान जैसे देशों की फ़िक्र कहीं ज्यादा है, क्योंकि क़र्ज़ के जाल में छोटे देशों को फंसाने का चीनी रूख उसे बखूबी नज़र आ रहा है. जाहिर सी बात है कि ऐतिहासिक रुट का चीन सहारा तो अवश्य ले रहा है, किन्तु उसका उद्देश्य रणनीतिक कहीं ज्यादा है.

भारत का जवाब

यदि खुलकर कहा जाए तो 2013 में शुरू हुई इस परियोजना का भारत के पास अभी कोई ठोस जवाब नहीं है. हालाँकि, उसने इस चीनी परियोजना का खुला विरोध करके चीन को वॉक ओवर नहीं देने का साहसिक फैसला अवश्य किया है. भारत के इस विरोध पर चीन परेशान भी हुआ है. चीन के अखबार ग्लोबल टाइम्स के संपादकीय लेख में कहा गया है कि मोदी सरकार ने घरेलू राजनीति के मद्देनजर बीआरएफ सम्मेलन में शिरकत नहीं की. गौरतलब है कि ग्लोबल टाइम्स को चीन की कम्युनिस्ट सरकार की राय का आइना माना जाता है. तो जाहिर है कि भारत के विरोध को नोटिश तो किया ही गया है. पर क्या ‘सिल्क रुट’ का इतना सा विरोध पर्याप्त है?
शायद नहीं!
तभी तो, अगले महीने की शुरुआत में पीएम नरेंद्र मोदी अपने रूस और कजाकस्तान के दौरे पर इंटरनैशनल नॉर्थ साउथ ट्रांसपोर्ट कॉरिडोर (INSTC) और अन्य कनेक्टिविटी माध्यमों को शुरू करने की कोशिशों को रफ्तार दे सकते हैं. ख़बरों में बताया जा रहा है कि रीजनल कनेक्टिविटी से जुड़े इन प्रॉजेक्ट्स पर भारत सावधानीपूर्वक नजर रख रहा है.
सिल्क रोड के जवाब में, भारत अब सुदूर मध्य एशिया और यूरेशियाई क्षेत्रों तक अपनी बेहतर पहुंच सुनिश्चित करने में जुट सकता है. इस परियोजना में ईरान के बांदर अब्बास पोर्ट के जरिए चाहबार पोर्ट से जोड़ा जा सकता है. वैसे भी, ईरान के चाहबार पोर्ट को विकसित करने में भारत भी मदद कर रहा है.
इसके अतिरिक्त, भारत चाहबार कनेक्टिविटी कॉरिडोर को INSTC या ईरान तुर्कमेनिस्तान-कजाकस्तान रेल लाइन, ईरान-उज्बेकिस्तान-कजाकस्तान लिंक और ट्रांस अफगान रेल लाइन के जरिए मध्य एशिया से जोड़ने की संभावनाओं को तलाश कर रहा है.’ हालाँकि, यह सभी बातें अभी कांसेप्ट के दौर में हैं, जबकि चीन का ‘सिल्क रुट’ हकीकत की सीढ़ियां चढ़नी शुरू कर चुका है. जाहिर तौर पर भारत को अभी काफी प्रयास करने की आवश्यकता है और इस प्रयास में उसे बड़े देशों को तेजी से साथ जोड़ना होगा. वैसे, रूस अपने प्रभाव को कुछ हद तक मेन्टेन करने के लिए भारत की आईएनएसटीसी परियोजना में रुचि आवश्यक दिखला सकता है, बशर्ते भारत अमेरिका और उसे संतुलित कर ले.

चीन के सर से ऊपर जा सकता है पानी

सवाल पूछा जा रहा है कि क्या चीन के लिया यह सब आसान है? तो इसका सीधा जवाब है नहीं!ख़बरों के अनुसार, चीन में कर्ज देने वाले दो प्रमुख बैंक चाइना डेवलपमेंट बैंक और एक्सपोर्ट-इंपोर्ट बैंक ऑफ चाइना एशिया, मध्य एशिया और अफ्रीकी देशों को 200 अरब डॉलर का कर्ज पहले ही दे चुके हैं. हालिया, बीजिंग सम्मेलन के दौरान ही चीन ने सैकड़ों अरब डॉलर कर्ज देने का ऐलान किया. बैंक के उप गवर्नर सुन पिंग ने कहा कि यदि कुछ देशों को बहुत ज्यादा कर्ज दिया गया तो लोन की स्थिरता पर सवाल उठेंगे. वैसे भी जब परियोजनाएं आगे बढ़ेंगी तो व्यवहारिक दिक्कतें सामने आएंगी और फिर समस्याएं बढ़ती जाएँगी. यह भी गौर करने वाली बात है कि सिल्क रुट से जुड़ी अधिकांश परियोजनाओं (1600 से अधिक) को चीन की सरकारी कंपनियां धन मुहैया करा रही हैं.
इस परियोजना की व्यापकता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अकेले चीन कम्युनिकेशन कंस्ट्रक्शन ग्रुप को 10,320 किमी लंबी सड़कें, 95 बड़े बंदरगाह, 10 हवाई अड्डे और 2080 रेलवे परियोजनाओं को पूरा करना है. जाहिर है, खतरा बड़ा है और इसे चीनी विशेषज्ञ भी बखूबी समझ रहे हैं.
चीन के सेंट्रल बैंक के गवर्नर झोउ शियानचुआन ने कहा है कि जोखिम और समस्याओं को लेकर सरकार को चेता दिया गया है. बल्कि, इस बात की वेनेजुएला संकट से तुलना की जा रही है.बताते चलें कि वेनेजुएला में चीन के 65 अरब डॉलर फंस चुके हैं.

अमेरिका और शेष विश्व

वैसे देखा जाए तो चीन की इस परियोजना से अमेरिका को कहीं ज्यादा चिंतित होना चाहिए, क्योंकि भारत तो कुछ साल बाद वैश्विक राजनीति को प्रभावित करने की स्थिति में पहुंचेगा, जबकि अमेरिका को टक्कर देने की स्थिति में चीन जल्द पहुँच सकता है. अगर चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की यह महत्वाकांक्षी योजना कामयाब हो जाती है तो अमेरिकी प्रभाव को बड़ी चुनौती मिलने वाली है और हालिया परिदृश्य से यही लगता है कि अमेरिकी विशेषज्ञ इस खतरे की गंभीरता को इस दृष्टि से नहीं देखना चाहते हैं.बजाय इसके अमेरिका संरक्षणवाद के रूढ़िवादी नियम पर चलता ज्यादा नज़र आ रहा है. आशंका यह भी है कि कोरियाई प्रायद्वीप में नार्थ कोरिया को चीन अमेरिका के खिलाफ एक हथियार की तरह इस्तेमाल कर रहा है, ताकि उसका बड़ा ध्यान उसी में उलझा रहे और ‘सिल्क रुट’ परियोजना की काट तैयार करने से वह दूर ही रहे.
हालाँकि, इस बात पर विशेषज्ञ प्रश्नचिन्ह उठाएंगे मगर साउथ चाइना सी पर चीन का आक्रामक रूख ‘सिल्क रुट’ से उसे दूर रखने के लिए भी है. जाहिर सी बात है, हर मोर्चे पर अमेरिका चीन के साथ नहीं भिड़ना चाहेगा. पर इस बीच मुश्किल यह आती जा रही है कि चीन की इस वैश्विक परियोजना को ‘फ्री हैंड’ मिलता दिख रहा है.
वन बेल्ट, वन रोड पर जानकारों का कहना है कि जैसे जैसे ये परियोजना आगे बढ़ेगी बैंक, लेनदारों और देनदारों के बीच खतरा बढ़ जाएगा. मतलब, इस परियोजना में गरीब देशों को चीन अरबों डॉलर का कर्ज देगा. इस कर्ज से पिछड़े देश अपने यहां सड़कें, पुल, हवाईअड्डा, बंदरगाह बनाकर इंफ्रास्ट्रक्चर मजबूत करेंगे. दिलचस्प बात ये है कि इनके ठेके चीनी कंपनियों को ही मिलेंगे. अर्थात, कर्ज लेने वाले देश चीनी कंपनियों का बिल चुकाएंगे, साथ ही चीन को सूद समेत कर्ज भी चुकाएंगे. ऐसे में समझना आसान है कि कर्ज चुकाने में नाकाम रहने की स्थिति में चीन इन देशों का इस्तेमाल उनकी स्वतंत्रता और संप्रभुता का ख्याल रखे बिना कर सकता है. जहाँ तक बात यूरोपीय देशों की है तो वन बेल्ट, वन रोड समिट में यूरोप के कई देशों ने हिस्सा तो जरूर लिया, किन्तु उन्होंने चीन के साथ समझौता करने से इन्कार कर दिया. इन देशों में फ्रांस, जर्मनी, ब्रिटेन, ग्रीस और पुर्तगाल जैसे विकसित देश शामिल हैं. कई देशों ने चीन के इस प्रोजेक्ट को बेहद जल्दबाजी में शुरू किये जाने की तरफ भी इशारा किया.
जाहिर है, आशंका तो सभी को है और यह आशंका इसलिए भी है क्योंकि चीन में एक तरह से लोकतंत्र नहीं है. आप कल्पना कर सकते हैं कि जिस देश में फेसबुक जैसा ओपन प्लेटफॉर्म बैन हो, वह देश ‘सिल्क रुट’ के माध्यम से तमाम देशों में व्यापार को प्रोत्साहन देने का छद्म दिखावा कर रहा है. ऐसे में 8 लाख करोड़ के इस प्रोजेक्ट पर तमाम देश संदेह से भर गए हैं. ट्रांसपेरेंसी और नागरिक अधिकारों के नाम पर चीन पहले ही बदनाम रहा है और ऐसे में वैश्विक स्तर पर जब ऐसा देश बड़ी भूमिका निभाने की तैयारी कर चुका है तो सभी के कान खड़े होना स्वाभाविक ही है

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